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एक देश के एक राज्य में एक बड़ा नगर था। नगर में अकाल पड़ा। उस साल पानी की एक बूंद नहीं बरसी। नगर भर में त्राहि-त्राहि मच गई। ताल-तलैया, नदी, पोखर सब सूखने लगे। नगर से लोग पलायन करने लगे।
उसी नगर की एक पोखर में मंदबुद्धि नाम का एक कछुआ निवास करता था और तीक्ष्णबुद्धि और तीव्रबुद्धि नाम के दो हंस। ये तीनों बडे अच्छे मित्र थे। जब पोखर का पानी बिलकुल सूखने लगा तो पोखर पर निवास करने वाले पक्षी भी पलायन करने लगे। मछलियाँ मरने से आहार की कमी पड़ने लगी। अब तीक्ष्णबुद्धि और तीव्रबुद्धि ने भी सोचा कि यहां मरने से बेहतर है कि कहीं दूर देश उड़ चलें। वे जब दूर देश जाने की तैयारी करने लगे तो उन्हें अपने मित्र मंदबुद्धि का भी खयाल आया। उन्होने उससे कहा कि वह भी उनके साथ चले। मंदबुद्धि ने आंखों में आंसू भरकर कहा, “मित्र तुम उड़ सकते हो, तुम जाओ। मैं भला तुम्हारे साथ कैसे चल सकता हूं। मैं तो कितने धीरे-धीरे चलता हूं। तुम जाओ, मेरी तो मृत्यु यहीं आनी है।”
तीव्रबुद्धि और तीक्ष्णबुद्धि दोनों ने एक स्वर में कहा, “नहीं मित्र हम तुम्हें इस तरह मरने के लिये नहीं छोड़ जायेंगे। तुम भी हमारे साथ चलोगे।”
“मगर कैसे”, मंदबुद्धि कुछ समझ नहीं पा रहा था।
“हम बताते हैं। हम दोनों एक डंडी को उसके सिरों से अपनी चोंच में पकड़ कर उडेंगे। तुम उस डंडी को बीच में से अपने मुंह में दबा लेना। इस तरह हम लोग साथ-साथ यंहा से निकल जायेंगे।”
“तुम सचमुच बहुत बुद्धिमान हो और दयालु भी, बड़ी कृपा है तुम्हारी”, मंदबुद्धि कछुये ने कहा।
“इसमें कृपा कैसी? मित्रता का यही धर्म है कि विपत्ति में भी मित्र का साथ न छोडे”
“मैं तुम्हारी इस कृपा के लिए जिन्दगी भर तुम्हारा कर्जदार रहूंगा”, मंदबुद्धि गिड़गिड़ाया।
“मगर देखों, लोग तुम्हें देख कर कुछ भी कहें या शोर मचायें , तुम अपना मुंह मत खोलना, वरना जमीन पर गिर पड़ोगे ”
मंदबुद्धि मान गया और वे तीनों उड़ चले।
रास्ते में एक बड़ा नगर पड़ा। लोगों ने दो हंसों के साथ इस तरह लटक कर कछुये को उड़ते देखा तो वे हंसने लगे। कुछये ने बड़ा सब्र किया पर अन्त में उससे न रहा गया। उसने कुछ कहने को मुंह खोला ही था ही था कि वह नीचे आ गिरा।
वह जहां गिरा वहां नीचे एक सिंहासन रखा था। हुआ ये था कि वहां के राजा की असमय, 90 वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गयी थी। कौन राजा हो, इसको लेकर खींच-तान चल रही थी। कोई फैसला नहीं होने पर ये तय हुआ था कि किसी भी तरह खींच-तान , दंद-फंद या जुगाड़ करके जो बीचों-बीच रखे सिंहासन पर बैठ जायेगा उसे राजा मान लिया जायेगा। उनकी खींच-तान चल ही रही थी कि आसमान से ये कछुआ सीधे सिंहासन पर जा गिरा। सब सन्न रह गये। मंदबुद्धि ही अब सिंहासन पर जा बैठा था। पर अब क्या किया जा सकता था। प्रजातंत्र तो प्रजातंत्र, जो सिंहासन पर बैठ गया, वही राजा। सारे लोगों ने अदब से सिर झुका दिये, ऑखे नीचीं कर लीं। सारे लोग मंदबुद्धि के अन्दर अब तक छिपे गुणों का बखान करने लगे। मंदबुद्धि को जीवन में पहली बार ये अहसास हुआ कि वह कितना बुद्धिमान और कितना महान है।
मदंबुद्धि उनकी पकड़ से छूट कर कर गिर पड़ा है, ये देख घबराये हुये तीव्रबुद्धि और तीक्ष्णबुद्धि भी अपनी उड़ान बीच में रोकर नीचे उतर आये थे कि देखें मंदबुद्धि मरा या जिया। वे सोचते थे कि उनके मना करने के बावजूद मंदबुद्धि ने जो अपना मुंह खोला है उसके लिये वे उसे बहुत डांटेंगे।
पर यहां तो मंदबुद्धि के ये ठाठ देखकर वे हैरान थे। वे ही मंदबुद्धि को यहां तक लाये हैं इसलिये इस सारे समारोह में वे ही सबसे महत्वपूर्ण हैं, ये सोच-सोच कर उनको सीना गर्व से फूल गया। वे समारोह की भीड़ में आगे और आगे पंहुचने को कोशिश करते-करते सबसे आगे पहुंच गये। मंदबुद्धि ने उन्हें देखा और धीरे से मुस्कराया। तीव्रबुद्धि और तीक्ष्णबुद्धि ने समवेत स्वर में पूछा, “कैसे हो मंदबुद्धि?”
मंदबुद्धि फिर धीरे से मुस्कराया।
तीव्रबुद्धि और तीक्ष्णबुद्धि को भरोसा हो चला था कि मंदबुद्धि के दरबार में उन्हें अवश्य ही कोई उच्च पद मिलेगा। मंदबुद्धि ने एक नजर सिर झुकाये सिंहासन के नीचे खड़े लोगों पर डाली और उन्हें बैठ जाने के लिये कहा। तीव्रबुद्धि और तीक्ष्णबुद्धि अब भी वहीं खड़े रहे उन्हें विश्वास था कि मंदबुद्धि उन्हें बुला कर अपने पास बिठायेगा और अपने राजा बनने की प्रक्रिया में उनके महान योगदान का उल्लेख करेगा।
मंदबुद्धि ने एक बार फिर मुस्करा कर दोनों की और देखा और, “कहा बैठ जाइये वहीं, वहीं बैठ जाइये।”
असंमजस में पड़े वे दोनो वहीं बैठ गये।
सभा की कार्यवाही शुरू हुई। सिंहासन के नीचे बैठे एक व्यक्ति ने, जो उनका नेता जैसा लगता था, आकर मंदबुद्धि को माला पहनाई। इसके पश्चात शुरू हुआ माल्यार्पण का अनवरत सिलसिला। उसके बाद भाषण हुये। उन लोगों ने भी जो आज से पहले मंदबुद्धि से कभी नहीं मिले थे, मंदबुद्धि की सारी ख़ूबियाँ इस तरह बयान कीं मानों वे उसे बरसों से जानते हों।
जब सारी औपचारिकतायें समाप्त हो गईं तो उस नेतानुमा व्यक्ति ने गर्दन और कमर दोनों को समकोण पर झुका कर मंदबुद्धि से निवेदन किया, “महाराज पहली राजाज्ञा बताई जाये।”
मंदबुद्धि मुस्कराया, “वे जो दोनों हंस बैठे हैं…….”
वहां बैठे लोगों ने अब दोनों हंसो का नोटिस लिया। हंसों ने अपने गर्व से फूले सीने के साथ आस-पास के जन समुदाय को निहारा। दोनों हंस उठकर खड़े हो गये।
मंदबुद्धि की पहली राजाज्ञा सुनाई दीं, “ इन दोनों हंसों को फांसी पर लटका दिया जाये।”
तीव्रबुद्धि और तीक्ष्णबुद्धि हतप्रभ रह गये। उन्होंने कुछ कहने की कोशिश की मगर राजा के सिपाहियों ने उनके मुंह भींच दिये। दोनों को उसी दिन फ़ांसी दे दी गयी।
मंदबुद्वि अब निश्चिंत होकर राज्य कर रहा है। राज्य में अब कोई भी नहीं जानता उसका अतीत कि वह कौन था, वह कहां से आया है? अब तो उससे पास देश-विदेश के कई विश्विविद्यालयों की मानद पी0एच0डी0 और डी0लिट0 जैसी उपाधियॉ भी है
सीख-राजनीति में जरूरी है कि जिस सीढ़ी पर चढ़कर तुम ऊपर पहुंचे हो उसे मौका मिलते ही नष्ट कर दो। पता नहीं तुम्हारे ये पुराने साथी कब तुम्हारे बराबर आकार खडे होने की मांग कर डालें। वैसे भी राजनीति में तो आपका अतीत और बुराइयां जाने वाले लोग भविष्य में कभी भी आपके लिये खतरा बन सकते है। सो
“विनाशाय लंगोटिया यारानाम्”
पंचतंत्र की एक कथा का यह आधुनिक रूपांतरण मेरी राय में तो हमारी आज की राजनैतिक सोच, चुनाव प्रक्रिया और उसकी बुराइयों को अच्छी तरह प्रतिबिंबित करता है; आपकी क्या राय है?
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