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हमें सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता, नेकनियती, इंसाफ सब चाहिए मगर अपनी शर्तों पर

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आज हर जगह अराजकता है, भ्रष्टाचार है, झूठ का बोलबाला है, जिसको मौका मिल रहा है, वह दूसरे का हक़  मार रहा है।
क्या है इसकी असली वजह?
क्या इससे निपटने का कोई तरीका है?
क्या सख्त से सख्त नियम-कानून, सख्त से सख्त सरकारें, पुलिस बल या कि फौजें, इसे बदल सकते हैं? क्या सबको सिखा सकते हैं सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता, नेकनियती और  इंसाफपसंदी?
क्या दवाब, डर, सजा या ज़लील करने से ये सब मनवाया जा सकता है?
क्या ऐसे आज का सामाजिक परिदृश्य बदला जा सकता है?
शायद नहीं….
क्यों?
छोटा सा एक उदाहरण देखिये ….

शहर  के  चौराहों पर  लाल  बत्तियां हर शहर में लगीं हैं, पुलिस के सिपाही चौकन्ने हैं। आपने लाल बत्ती होने पर चौराहा पर किया नहीं कि आपका चालान हुआ,  आपने  बिना हेलमेट पहने वाहन चलाया नहीं कि आप मुसीबत में फंसे। भले  डर से ही सही पर लोग ईमानदारी से इसका पालन करते नज़र आते हैं ………. लगता है बहुत कुछ सुधर रहा है।

जब यही सुधरे लोग तब उसी चौराहे से गुजरते हैं जब वहाँ पुलिस का सिपाही नहीं होता, तब?

फर्राटे से लाल बत्ती की परवाह किये निकल जाते हैं ये लोग, ये जानते हुए भी कि ऐसा करना गलत है, क्योंकि इस गलती की इस समय कौन सजा मिलने वाली है?

कहने का मतलब है कि दबाव से, कानून से, सख्ती से कहाँ बदला कुछ?

अगर कुछ बदला ही होता तो चौराहे पर सिपाही के न होने पर भी हम रुक कर लाल बत्ती के हरी होने का वैसे ही इंतजार करते जैसे कि कानून की रक्षा करने वालों की मौजूदगी में करते हैं।
ऐसा नहीं कि हम इंसाफ पसंद नहीं, हमें ईमानदारी अच्छी नहीं लगाती, हमें नैतिकता से नफ़रत है या हम सच्चे होने को बुरा मानते हैं
हमें सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता और ईमानदारी सब चाहिए मगर वैसी और उतनी ही, जैसी और जितनी हमें उस मौके पर “सूट” करती है। मौके- मौके के हिसाब से इन चीजों के लिए हमारे मानदंड अलग-अलग होते हैं।
शायद ये सिर्फ हमारे देश कि ही नहीं अपितु पूरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है और अन्य सारी समस्यायों का कारण भी……….
कैसे?
जब हम टिकट के लिए लाइन में लगे होते हैं और हमारा नम्बर वहां दूसरा या तीसरा होता है ऐसे में यदि कोई पीछे से आकर खिड़की में हाथ घुसेड़ना चाहे तो हम सारे नियम कानूनों की, मानव के नैतिक पतन तक  की दुहाई दे डालते हैं।
मगर इसी स्थिति में जब हम लाइन में सबसे पीछे हों और लाइन तोड़ कर पहले खिड़की पर पहुँचने की कोशिश कर रहे हों तो…
तो हमें लगता है कि हमारी परिस्थितियों को देखते हुए ये “मोहलत” हमें मिलनी ही चाहिए और परिस्थितियों को थोडा प्रभावी बनाने के लिए हमारा थोड़ा सा झूठ बोलना कौन सा बड़ा गुनाह हो गया?
जब हम किसी दफ्तर में अपना काम कराने जाते हैं और वहां बैठा अधिकारी हमसे  “सुविधा शुल्क ” की मांग करता है तो गालियों का सैलाब फूट पड़ता है, “सब …. चोर, बेईमान और भ्रष्टाचारी हैं।”

इसके विपरीत जब हम अधिकारी की कुर्सी पर होते हैं तो..
तो हमें लगता है, “बुरा क्या है हम उसे सहूलियत भी तो दे रहे हैं। महीनों चक्कर लगाने पड़ते तब जाकर ये काम हो पता, इससे ज्यादा तो पेट्रोल में उड़ जाते। इसके एवज में अगर हम उससे कुछ रुपये ले भी रहे हैं तो बुरा क्या है?  एक तरह से तो एक झटके में ये काम निपटा कर हमने तो उसकी कुछ बचत ही की है।
कहने का मतलब ये है कि जब हमें दुनियां से कुछ चाहिए तब सारी दुनियां सच्ची हो, ईमानदार हो, इंसाफ पसंद हो……….
पर जब हमारी बारी  दुनियां को कुछ देने की  आती है तो ये सारे ख़यालात, ये सारी कसौटियां हमारी सोच से गायब हो जाते हैं हमें तब  थोड़ा सा झूठा होना, थोड़ा सा चोर होना,थोड़ा सा बेईमान होना; बुरा नहीं लगता, वरन अच्छा ही लगता है
यही है समस्या…
तो फिर उपाय?
क्या कोई नहीं?
है, उपाय है……….

पर ये कहीं बाहर नहीं हमारे ये अंदर से निकलेगा, हमारे मन से निकलेगा।
जो अपेक्षा हम अपने लिए आस-पास की दुनियां से करते हैं, हमें उस पर विश्वास करना होगा।
जैसा हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं वैसा ही हम दूसरों के लिए करें।
जब तुम दूसरों के लिए अच्छा नहीं सोचोगे, अच्छा नहीं करोगे, तो दूसरा तुम्हारे लिए अच्छा कैसे सोच सकता है?
हम पर कोई बंधन न हो, कोई दवाब न हो, किसी सजा का डर भी न हो तब भी हम अच्छे रहें, ईमानदार रहीं, सच्चे रहें।
क्या कहते हैं इसे?
आत्मानुशासन
यही है आज विश्व की सारी समस्याओं का हल।
हमें अपने आप को बदलना होगा……….
सारी अच्छाइयां पहले हमें दूसरों के लिए, अपने में पैदा करें तभी हम दूसरों से इनकी अपेक्षा करें।
इस तरह से जब हर व्यक्ति दिल से बदलेगा, तभी समाज बदलेगा, दुनियां बदलेगी।
हम बदलेंगे, युग बदलेगा, दुनियां बदलेगी।
इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है ।

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